दीया जलता रहा
मौन होकर एक दीया जलता रहा
राह पथरीली रही हर कदम पर, वो मगर आगे बढ़ा अपने दम पर।
नित हौसलों से मात दे अंधेरों को, जीत का था शंखनाद हर सितम पर।
ख्वाब मन में फिर भी मचलता रहा
मौन होकर एक दीया जलता रहा।
उसने हँस कर सह ली हर यातनाएँ, बांध ली जंजीर और सब वर्जनाएँ।
आह तक निकली नहीं सलवटों से, जीवन्त थी फिर भी सभी संभावनाएँ।
अपनों का परायापन उसे खलता रहा
मौन होकर एक दीया जलता रहा।
स्वप्न बस इतना कि एक मुस्कान दूँ, हिमालय सी श्वेत ऊर्ध्व पहचान दूँ।
भाल ऊँचा हो कि स्वर्ग सम्मुख रहे, तुझे तिमिर के पार ऊँची उड़ान दूँ।
छोड़ दो कि जो चला चलता रहा
मौन होकर एक दीया जलता रहा।
मेरे स्फुट उच्चारणों का विसर्ग हो, मैं धरा हूँ और तुम ही मेरा स्वर्ग हो।
उंगलियों की पोरों में हो जीवन मेरा, मुक्ति पथ हूँ व तुम मेरा अपवर्ग हो।
दीप ये दिनकर में अब बदलता रहा
जो एक दीया मौन हो जलता रहा।
यूँ ही हँसते खिलखिलाते रहना तुम, सजना मेरे जीवन सजाते रहना तुम।
खुद से यूँ तो कोई नहीं नाराजगी है, फिर भी हो गर तो मनाते रहना तुम।
आशाओं को ग्रहण कर चलता रहा
जो एक दीया मौन हो जलता रहा।
अब तेरे मेरे मध्य क्या उपहार हो, नभ से ऊँचा जलधि से गहन प्यार हो।
नित शहद सा मीठा रहे ये होना तेरा, तेरा मुझमें तुझमें मेरा संसार हो।
वो गिरता रहा वो ही संभलता रहा
जो एक दीया मौन हो जलता रहा।