राफेल डील की शुरुआत: 2000 के दशक का सीन
बात शुरू होती है 2001 से, जब भारतीय वायुसेना (IAF) को एहसास हुआ कि उनके पास लड़ाकू विमानों की कमी हो रही है। पुराने मिग-21 और मिग-27 जैसे विमान अपनी उम्र पूरी कर रहे थे, और चीन-पाकिस्तान की बढ़ती ताकत को देखते हुए IAF को कुछ तगड़ा चाहिए था। तो, 2007 में यूपीए सरकार (कांग्रेस की अगुवाई वाली) ने एक बड़ा टेंडर निकाला, जिसे MMRCA (Medium Multi-Role Combat Aircraft) कहा गया। मकसद था 126 मल्टी-रोल फाइटर जेट खरीदना, जो हवा में भी मारे, ज़मीन पर भी हमला करे, और टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के साथ भारत में बन भी सके।
इस टेंडर में दुनिया की टॉप विमान कंपनियाँ कूद पड़ीं:
लॉकहीड मार्टिन (अमेरिका) का F-16
बोइंग का F/A-18
यूरोफाइटर टाइफून (यूरोप)
रूस का मिग-35
स्वीडन की साब ग्रिपेन
और फ्रांस की डसॉल्ट एविएशन का राफेल

लंबे टेस्ट और ट्रायल के बाद, 2012 में राफेल को चुना गया, क्योंकि ये सबसे सस्ता (लोएस्ट बिडर) और टेक्निकली बेहतर था। प्लान था कि 126 में से 18 विमान फ्रांस से सीधे आएँगे, और बाकी 108 हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (HAL) भारत में बनाएगी, टेक्नोलॉजी ट्रांसफर के साथ। लेकिन यहीं से कहानी में ट्विस्ट शुरू हुए।
यूपीए का दौर: डील अटकी, बात बनी नहीं
यूपीए सरकार (2004-2014) के समय ये डील आगे बढ़ी, लेकिन कई वजहों से अटक गई:
कीमत का झोल: शुरुआत में डील की कीमत करीब 40,000 करोड़ रुपये थी, लेकिन 2014 तक ये बढ़कर 80,000 करोड़ तक पहुँच गई। डसॉल्ट ने कहा कि HAL के साथ मिलकर भारत में विमान बनाना महँगा पड़ेगा।

टेक्नोलॉजी ट्रांसफर का पंगा: डसॉल्ट और HAL के बीच बात नहीं बनी। HAL को लगा कि डसॉल्ट पूरी टेक्नोलॉजी शेयर नहीं कर रहा, और डसॉल्ट को HAL की प्रोडक्शन कैपेसिटी पर भरोसा नहीं था।
ब्यूरोक्रेसी और देरी: यूपीए सरकार पर फैसले लेने में देरी और भ्रष्टाचार के आरोप लगे। विपक्ष (तब बीजेपी) ने भी हंगामा किया कि डील में कुछ गड़बड़ है।
नतीजा? 2014 तक, जब यूपीए की सरकार गई, डील कागजों में ही रह गई। कोई हस्ताक्षर नहीं, कोई विमान नहीं।
मोदी सरकार और नया ट्विस्ट: 36 राफेल की डील
2014 में एनडीए सरकार (बीजेपी) सत्ता में आई। 2015 में पीएम नरेंद्र मोदी फ्रांस गए, और वहाँ एक बड़ा ऐलान हुआ। पुरानी 126 विमानों की डील रद्द! इसके बजाय, भारत 36 राफेल विमान सीधे फ्रांस से खरीदेगा, पूरी तरह तैयार (फुली लोडेड) और बिना भारत में मैन्युफैक्चरिंग के। इसे G2G (Government-to-Government) डील कहा गया, यानी कोई बिचौलिया नहीं, सीधे फ्रांस सरकार से बात।

2016 में इस डील पर हस्ताक्षर हुए। कीमत? करीब 58,891 करोड़ रुपये (€7.87 बिलियन)। इसमें 30 फाइटर जेट और 6 ट्रेनर जेट शामिल थे। विमानों में भारत की खास जरूरतों के हिसाब से कुछ बदलाव किए गए, जैसे:
हेलमेट-माउंटेड डिस्प्ले
इजरायली मिसाइल सिस्टम
बेहतर रडार और इलेक्ट्रॉनिक वारफेयर सिस्टम
पहला राफेल जेट 2019 में भारत आया, और 2022 तक सभी 36 विमान डिलीवर हो गए। ये विमान अंबाला (पश्चिमी सीमा) और हाशिमारा (पूर्वी सीमा) में तैनात हैं।
विवादों का तूफान: राफेल डील क्यों बनी सियासी मुद्दा?
राफेल डील को लेकर खूब बवाल हुआ, खासकर 2018-2019 में, जब लोकसभा चुनाव नजदीक थे। कांग्रेस और विपक्ष ने मोदी सरकार पर कई आरोप लगाए:
कीमत में गड़बड़ी: कांग्रेस ने दावा किया कि यूपीए के समय एक राफेल की कीमत 526-570 करोड़ थी, लेकिन एनडीए ने 1,600-1,670 करोड़ प्रति विमान दिए। सरकार ने जवाब दिया कि नए सौदे में भारत-विशिष्ट उन्नयन, हथियार, और लॉजिस्टिक्स शामिल थे, इसलिए कीमत बढ़ी। रक्षा मंत्रालय ने दावा किया कि नई डील में प्रति विमान 59 करोड़ सस्ता पड़ा।

HAL को साइडलाइन करना: विपक्ष ने कहा कि HAL को हटाकर रिलायंस डिफेंस (अनिल अंबानी की कंपनी) को ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट दे दिया गया, जो पहले कभी विमान नहीं बनाई थी। सरकार ने कहा कि डसॉल्ट ने खुद रिलायंस को चुना, इसमें सरकार का कोई रोल नहीं।
पारदर्शिता की कमी: कांग्रेस ने माँग की कि डील की पूरी डिटेल सार्वजनिक की जाए, लेकिन सरकार ने कहा कि राष्ट्रीय सुरक्षा की वजह से कीमत और तकनीकी विवरण गुप्त रखना जरूरी है।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने इसे “चौकीदार चोर है” कैंपेन का हिस्सा बनाया, और जेपीसी (जॉइंट पार्लियामेंट्री कमिटी) जांच की माँग की।

सुप्रीम कोर्ट और CAG की भूमिका
2018 में सुप्रीम कोर्ट: विपक्ष ने डील में अनियमितता की शिकायत की। सुप्रीम कोर्ट ने दिसंबर 2018 में फैसला दिया कि डील में कोई गड़बड़ी या भ्रष्टाचार नहीं पाया गया। कोर्ट ने कहा कि विमान देश की सुरक्षा के लिए जरूरी हैं।
2019 में दोबारा सुनवाई: कुछ याचिकाओं के बाद कोर्ट ने नवंबर 2019 में फिर फैसला सुनाया और सभी याचिकाएँ खारिज कर दीं।
CAG की रिपोर्ट (2020): नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने कहा कि डील में कुछ शर्तें पूरी नहीं हुईं, जैसे टेक्नोलॉजी ट्रांसफर और ऑफसेट डिस्चार्ज (20,000 करोड़ का लक्ष्य था, लेकिन सिर्फ 11,000 करोड़ हुआ)। लेकिन कोई बड़ा घोटाला नहीं पाया गया।
नई डील: नौसेना के लिए राफेल-एम
2023-2025 के बीच राफेल की कहानी में नया चैप्टर जुड़ा। भारतीय नौसेना को अपने विमानवाहक पोतों (INS विक्रांत और INS विक्रमादित्य) के लिए आधुनिक जेट चाहिए थे, क्योंकि पुराने मिग-29K पुराने हो चुके थे।
2023 में शुरुआत: पीएम मोदी की फ्रांस यात्रा के दौरान 26 राफेल-मरीन (Rafale-M) जेट खरीदने की बात शुरू हुई। ये राफेल का नौसैनिक वर्जन है, जो विमानवाहक पोतों से ऑपरेट कर सकता है।
2025 में डील फाइनल: अप्रैल 2025 में कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी (CCS) ने 63,000 करोड़ रुपये की इस डील को मंजूरी दी। इसमें 22 सिंगल-सीटर और 4 ट्विन-सीटर ट्रेनर जेट शामिल हैं। डिलीवरी 2028-29 से शुरू होगी और 2031-32 तक पूरी होगी।
खासियत: राफेल-M में स्की-जंप टेकऑफ के लिए मजबूत इंजन, भारतीय हथियार (जैसे अस्त्र मिसाइल), और लैंडिंग इक्विपमेंट शामिल हैं। ये नौसेना की समुद्री ताकत को बढ़ाएँगे, खासकर इंडो-पैसिफिक में चीन की चुनौती के सामने।
राफेल की ताकत: क्यों है ये खास?
राफेल एक 4.5 जेनरेशन फाइटर जेट है, जो अपनी बहुमुखी प्रतिभा के लिए जाना जाता है। इसकी कुछ खासियतें:
मल्टी-रोल: हवा में डॉगफाइट, ज़मीन पर हमला, और टोही मिशन में माहिर।
हथियार: हैमर मिसाइल (70 लाख कीमत), मेटियोर एयर-टू-एयर मिसाइल, और स्कैल्प क्रूज़ मिसाइल।
रडार: AESA रडार, जो दुश्मन को दूर से पकड़ लेता है।
चीन और पाकिस्तान के लिए जवाब: विशेषज्ञ कहते हैं कि ये चीन के J-20 और पाकिस्तान के F-16 से कहीं बेहतर है।
जंग में आजमाया: अफगानिस्तान, लीबिया, माली, और इराक में राफेल ने अपनी ताकत दिखाई।
बड़ा प्लान: 110 राफेल की मेगा डील?
2025 में खबर आई कि भारत और फ्रांस एक और बड़ी डील पर बात कर रहे हैं, जिसमें 110 राफेल जेट खरीदे जा सकते हैं। ये डील भी G2G होगी और मेक इन इंडिया को बढ़ावा देगी। डसॉल्ट अब DRAL (Dassault Reliance Aerospace Limited) में 100% हिस्सेदारी ले रहा है, यानी भारत में राफेल के पार्ट्स बनेंगे, सर्विसिंग होगी, और शायद ग्लोबल हब बने। ये डील इंडो-पैसिफिक में पावर बैलेंस को बदल सकती है।
तो, डील का असली मसला क्या है?
राफेल डील भारत की रक्षा के लिए ज़रूरी थी, क्योंकि वायुसेना और नौसेना को आधुनिक जेट्स की सख्त ज़रूरत थी। लेकिन सियासी बवाल ने इसे विवादों में घेर लिया। सरकार का कहना है कि ये राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए जरूरी कदम था, और विपक्ष का आरोप है कि इसमें पारदर्शिता की कमी और कुछ कॉरपोरेट्स को फायदा हुआ। सुप्रीम कोर्ट और CAG ने इसे हरी झंडी दी, लेकिन कुछ सवाल अब भी हवा में हैं।
आज की तारीख में राफेल का स्कोरकार्ड
वायुसेना: 36 राफेल जेट, पूरी तरह ऑपरेशनल।
नौसेना: 26 राफेल-M की डील फाइनल, डिलीवरी 2028-29 से।
भविष्य: 110 राफेल की मेगा डील पर बात चल रही है।
विवाद: सुप्रीम कोर्ट ने क्लीन चिट दी, लेकिन सियासी गपशप खत्म नहीं हुई।
अब सवाल यह उठता हे की विदेश की धरती पर भारतीय प्रधान मंत्री मोदी जी मुकदमा क्यों दर्ज किया गया |

फ्रांस में राफेल डील को लेकर जो केस की बात है, उसे आसान और मसालेदार अंदाज़ में समझते है । बात को गहराई से देखेंगे, बिना किसी लाग-लपेट के, और जो जानकारी मेरे पास है, उसी के आधार पर।
फ्रांस में केस क्यों दर्ज हुआ?
2016 में भारत ने फ्रांस की कंपनी डसॉल्ट एविएशन से 36 राफेल जेट खरीदने की डील की थी, जिसकी कीमत €7.8 बिलियन (लगभग 59,000 करोड़ रुपये) थी। ये डील भारत में तो सियासी तूफान बनी ही, फ्रांस में भी कुछ लोगों को लगा कि इसमें कुछ गड़बड़ है। अब फ्रांस में एक केस दर्ज होने की बात इसलिए सामने आई:
शेरपा एनजीओ की शिकायत:
फ्रांस की एक एनजीओ Asso Sherpa, जो भ्रष्टाचार और आर्थिक अपराधों के खिलाफ काम करती है, ने अप्रैल 2021 में पेरिस की ज्यूडिशियल कोर्ट में एक आपराधिक शिकायत दर्ज की।
शिकायत में “X” (अज्ञात व्यक्तियों) के खिलाफ भ्रष्टाचार, प्रभाव डालने की कोशिश (इन्फ्लुएंस पेडलिंग), पक्षपात, और मनी लॉन्ड्रिंग जैसे आरोप लगाए गए। फ्रांसीसी कानून के मुताबिक, शुरू में आरोपी का नाम “X” रखा जाता है, और जज-जांचकर्ता बाद में असली नाम तय करते हैं। इसमें डसॉल्ट, कुछ फ्रांसीसी लोग, और कुछ भारतीयों पर शक जताया गया।

शेरपा ने दावा किया कि डील में अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट कॉन्ट्रैक्ट देने में गड़बड़ी हुई, क्योंकि रिलायंस को पहले कोई विमान बनाने का अनुभव नहीं था।
मीडियापार्ट की खोजी पत्रकारिता:
फ्रांस की जांच पत्रकारिता वेबसाइट Mediapart ने 2021 में “राफेल पेपर्स” नाम से खुलासे किए, जिनमें दावा किया गया कि डील में भ्रष्टाचार हुआ।
Mediapart ने बताया कि डसॉल्ट ने एक भारतीय मिडिलमैन सुशेन गुप्ता को लाखों यूरो की कमीशन दी, जो पहले अगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घोटाले में भी जांच के दायरे में था।
एक और चौंकाने वाला दावा था कि डसॉल्ट ने डेफसिस सॉल्यूशंस (सुशेन गुप्ता से जुड़ी कंपनी) को €1 मिलियन का “गिफ्ट” दिया, ताकि वो 50 राफेल मॉडल बनाए। लेकिन फ्रांस की एंटी-करप्शन एजेंसी (AFA) को इन मॉडलों का कोई सबूत नहीं मिला, जिससे शक हुआ कि ये पैसे कहीं और गए।
अनिल अंबानी और रिलायंस का रोल:
Mediapart और शेरपा ने दावा किया कि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस को ऑफसेट पार्टनर बनाने में नरेंद्र मोदी का दखल था।
दस्तावेज़ों के मुताबिक, डसॉल्ट और रिलायंस ने 26 मार्च 2015 को एक MoU साइन किया था, यानी मोदी के 36 जेट्स की डील की घोषणा (10 अप्रैल 2015) से 15 दिन पहले। इससे शक हुआ कि रिलायंस को पहले से चुना गया था।
फ्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलां ने 2018 में कहा था कि रिलायंस का नाम भारतीय सरकार ने सुझाया था, और उनके पास कोई विकल्प नहीं था। इससे विपक्ष ने भारत में हंगामा किया कि ये “क्रोनी कैपिटलिज्म” है।
फ्रांसीसी जांच का ट्रिगर:
शेरपा ने पहले 2018 और 2019 में फ्रांस की नेशनल फाइनेंशियल प्रॉसिक्यूटर ऑफिस (PNF) में शिकायत की थी, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।
2021 में Mediapart के नए खुलासों के बाद, जून 2021 में फ्रांस में एक ज्यूडिशियल जांच शुरू हुई, जिसमें “भ्रष्टाचार, पक्षपात, और प्रभाव डालने” की जांच हो रही है।

जांच में फ्रांस के मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों, पूर्व राष्ट्रपति फ्रांस्वा ओलां, और पूर्व रक्षा मंत्री ज्यां-यव्स ल द्रियां भी रडार पर हैं, क्योंकि ये लोग डील के समय अहम पदों पर थे।
मोदी जी पर सीधे आरोप?
फ्रांस में दर्ज केस में नरेंद्र मोदी का नाम स्पष्ट रूप से आरोपी के तौर पर नहीं लिया गया है, क्योंकि फ्रांसीसी कानून में शुरूआती शिकायत “X” के खिलाफ होती है।
लेकिन Mediapart और शेरपा के दावों में मोदी का नाम बार-बार आता है, क्योंकि:
उन्होंने 2015 में पुरानी 126 जेट्स की डील को रद्द कर 36 जेट्स की नई डील की घोषणा की, जिसमें HAL को हटाकर रिलायंस को लाया गया।
Mediapart ने दावा किया कि डील में सुशेन गुप्ता को गोपनीय दस्तावेज़ लीक हुए, जिसमें भारतीय रक्षा मंत्रालय की नेगोशिएटिंग टीम की कीमत की गणना शामिल थी। इससे डसॉल्ट को फायदा हुआ।
2019 में The Hindu ने खुलासा किया कि मोदी सरकार ने डील से एंटी-करप्शन क्लॉज हटा दिए, जो आमतौर पर रक्षा सौदों में होते हैं। इससे शक और गहरा हुआ।
भारत में कांग्रेस और विपक्ष ने इन खुलासों को भुनाया और दावा किया कि मोदी ने अनिल अंबानी को फायदा पहुँचाने के लिए डील में हेरफेर किया।
भारत सरकार और डसॉल्ट का जवाब
भारत सरकार: मोदी सरकार ने इन आरोपों को खारिज किया और कहा कि डील पारदर्शी थी। रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2018 में संसद में कहा कि नई डील में बेहतर कीमत, मेंटेनेंस पैकेज, और तेज़ डिलीवरी थी।
डसॉल्ट: कंपनी ने कहा कि डील में कोई गड़बड़ी नहीं हुई और सभी प्रक्रियाएँ पारदर्शी थीं। उन्होंने सुशेन गुप्ता को दिए गए पैसे को “कॉन्ट्रैक्ट का हिस्सा” बताया।
सुप्रीम कोर्ट: भारत में सुप्रीम कोर्ट ने 2018 और 2019 में डील को क्लीन चिट दी, कहते हुए कि इसमें कोई घोटाला नहीं पाया गया।
फ्रांस में जांच की ताजा स्थिति (2025 तक)
Mediapart ने दिसंबर 2023 में दावा किया कि भारतीय सरकार फ्रांसीसी जजों की जांच में सहयोग नहीं कर रही।
फ्रांस के पूर्व राजदूत इमैनुएल लेनैन ने जुलाई 2023 में एक नोट में कहा कि भारत आपराधिक मामलों में सहयोग में देरी करता है।
फ्रांसीसी जजों ने नवंबर 2022 में भारत से सुशेन गुप्ता और डसॉल्ट-रिलायंस के दफ्तरों की तलाशी के लिए मदद माँगी, लेकिन भारत ने कोई जवाब नहीं दिया।
कुछ विश्लेषकों का मानना है कि भारत और फ्रांस, दोनों सरकारें इस जांच को दबाना चाहती हैं, क्योंकि ये डील दोनों देशों के लिए रणनीतिक रूप से अहम है।
क्या है असली मसला?
फ्रांस में केस इसलिए दर्ज हुआ, क्योंकि शेरपा और Mediapart को लगा कि डील में भ्रष्टाचार हुआ, खासकर अनिल अंबानी की रिलायंस को फायदा पहुँचाने और सुशेन गुप्ता को कमीशन देने में।
मोदी जी का नाम सीधे तौर पर केस में नहीं है, लेकिन उनकी डील को रद्द करने और रिलायंस को लाने के फैसले पर सवाल उठे हैं। विपक्ष और फ्रांसीसी मीडिया ने इसे सनसनीखेज बनाया।
भारत में सुप्रीम कोर्ट ने डील को सही ठहराया, लेकिन फ्रांस की जांच अभी चल रही है। इसका नतीजा क्या होगा, ये देखना बाकी है, क्योंकि दोनों देशों की सरकारें इसे जल्दी खत्म करना चाहती हैं। ये थी फ्रांस में केस की पूरी कहानी। मजेदार बात ये है कि भारत में ये सियासी ड्रामा बन गया, लेकिन फ्रांस में ये एक कानूनी जांच है।